माय एक्सपीरियंस विद आरटीआई
पहले तय किया था कि इस पर कभी कुछ नहीं लिखूंगा पर आज लिख रहा हूँ ।
अगर यह पढने से किसी को फायदा हो सकता है तो शायद लिखना चाहिए ।
कुछ दिन पहले इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी थी: "Delhi's RTI Terrorist"
बेसिकली इसमें यह था कि एक आदमी नगरपालिका से आरटीआई फाइल करके शॉपिंग सेंटर्स और रेजिडेंशियल के नक़्शे ले आता था, फिर दुकानदारो को गैर कानूनी
कंस्ट्रक्शन होने का कहकर उनसे वसूली करता था। यह एक प्रकार से ब्लैकमेलिंग ही हो गयी
(इन भाई साहब की वसूली की मंथली इनकम 3 लाख से ज्यादा थी)
ऐसा ही एक किस्सा मुझे अहमदाबाद में एक सरकारी कर्मचारी ने बताया था।
उन्होंने कहा था कि कई पत्रकार आरटीआई करके जानकारी लेते हैं कि सरकारी योजना में कौन-सा
घर किसे मिला है, जैसे कि इंदिरा आवास योजना में कौन सा घर किसे आवंटित हुआ है। आम तौर पर जिनको घर मिला होता है, वह लोग उस घर किराए पर देकर फिर से झुग्गी-झोपड़ी में रहने चले जाते
है और घर के किराये से अपना जीवन गुजारते है। (जैसा अनिल कपूर की फिल्म नायक में दिखाया गया है)।
उनकी मजबूरी का फायदा उठाते हुए उनसे हर महीने किराये में से पत्रकार लोग अपना
हिस्सा ले आते है, जिसे आम तौर पर वसूली ही कहा जा सकता है ।
पर इसके चलते आरटीआई कानून की निंदा नहीं की जा सकती। यह भारत देश है, जहां हम हर चीज़ का जुगाड़ निकाल लेने में माहिर होते हैं। कोई कानून
ऐसा नहीं है, जिसका
लोग गलत फ़ायदा नहीं उठाते । इसी कानून का सही उपयोग कैसे कर सकते हैं, उसके बारे में नीचे लिख रहा हूँ--
मैंने आरटीआई तो बहुत फाइल की, पर यहाँ मुख्य किस्से के बारे में लिख रहा हूँ । पहला अनुभव ज़्यादा
महत्वपूर्ण नहीं था, पर पहला हमेशा कुछ ख़ास होता है, इसलिए शुरुआत उसी से—
आरटीआई की शुरुआत का सिलसिला कुछ अजीब और हास्यास्पद था ( पढ़कर हंसना मना है :D ) । हमारे यहाँ
ज्यादातर लोग पेट्रोल रुपया के हिसाब से भरवाते है (जैसे 100 रुपये
का, 200 रुपये
का) । कोई लीटर के हिसाब से नहीं भरवाता। अब मैंने ली थी नयी बाइक और निकालनी थी एवरेज, तो लीटर से ही भरवाना था पर पंप वाले मना कर दिया तो मैंने भारत पेट्रोलियम में आरटीआई की और पंप वाले को लिखित में
बताया कि: “Each petrol pump bound to fill up petrol
in terms of Liter or Money which ever ask by customer”
दूसरा अनुभव:
इंजीनियरिंग में पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए स्कॉलरशिप दी जाती है - ८०००/ महीने। ज्यादातर मामले में स्कॉलरशिप के पैसे 8-१०
महीने लेट ही आते है। एक दोस्त के कॉलेज में एक साल तक की देरी हुई थी। डायरेक्ट मिनिस्ट्री में
आरटीआई लगाई
और पूछा कि इस "XYZ" कॉलेज में स्कॉलरशिप कब रिलीज़ की गयी ? जवाब आया कि इसका डेटा उपलब्ध नहीं है, पर साथ ही में उसी हफ्ते स्कॉलरशिप के पूरे पैसे आ गए। आज हालत यह है
कि उस कॉलेज के स्टूडेंट्स की स्कॉलरशिप हर महीने आ जाती है और दूसरे कॉलेज में ३
महीने तक लग जाते है ।
तीसरा अनुभव:
स्वामी विवेकानंद जी के १५०वें जन्मदिन पर गुजरात के सभी कॉलेजों में
एक नया पेपर शामिल किया गया था। (अभिवृत्ति टेस्ट टाइप)। यह ऐसा पेपर था, जिसमें प्राइमरी स्कूल का बच्चा भी सौ में से सौ नंबर ले आये।
ज्यादातर स्टूडेंट्स (मुझे भी) को ७०-८० के बीच में मार्क्स आये थे और उसी के चलते
मेरा डिस्कटिंक्शन 0. 05 % से चूक गया। पहले तो बहुत से दोस्तों
ने प्रोफेसर्स से कम्प्लेन की पर किसी ने नहीं सुनी (सरकार के दामाद जो ठहरे)। फिर मैंने जुगाड़ लगाया और एक आरटीआई लगाई, जिसमें पिछले ६० साल की कॉलेज की इनकम
और एक्सपेंडिचर के बारे में पूछा तो प्रोफेसर भड़क गए और कहने लगे, “भाई
तेरी प्रॉब्लम क्या है? यह डेटा के लिए मुझे १ साल तक मेहनत करनी पड़ेगी और तुझे ३० दिन में कैसे दूंगा?” मैंने कहा यह आपकी प्रॉब्लम है । फिर उन्होंने (प्रोफेसर) आराम से कहा कि: “मुझे
पता है तुमको कॉलेज की इनकम और एक्सपेंडिचर में रस नहीं है तुम्हारा प्रॉब्लम कुछ
और है” ।
फिर मैंने झट से बता दिया कि प्रॉब्लम यह है और उसके बाद मैंने अपनी आरटीआई वापस
ले ली। प्रोफेसर ने यूनिवर्सिटी तक बात गंभीरता से पहुंचाई। आज भी याद है, उस सब्जेक्ट का रिजल्ट ३ जुलाई को फिर से अनाउंस किया गया, लगभग १०००० स्टूडेंट्स के रिजल्ट में चेंज हुआ और मेरा ग्रेड AA और डिस्टिंक्शन हो गया। अब आप इसे ब्लैकमेलिंग भी कह सकते है या
ऊँगली टेढ़ी कर घी निकालना भी।
चौथा अनुभव:
किसी भी रिसर्च के लिए "डेटा" मुख्य चीज़ होती है। पीजी
कोर्स में डेटा कलेक्शन के लिए ऑफिशियली ३ महीने का समय दिया जाता है। स्टूडेंट्स
कम्पनी, सरकारी
दफ्तर, वेबसाइट्स, बुक्स से ज़रूरी डेटा निकालते हैं जो रिसर्च में काम आये। प्राइवेट कंपनी से डेटा लेने के लिए कई बार स्टूडेंट्स को
पैसे भी देने पड़ते है। कंपनी वाले घंटो तक मिलने के लिए इंतज़ार करवाते है और
सरकारी दफ्तर से डेटा लेना मतलब नामुमकिन काम। मुझे भी टोल टैक्स
के लिए डेटा चाहिए था । “शरीफ
बच्चे” की
तरह रोड बनाने वाली कम्पनी में गया, उन्होंने मना कर दिया। फिर म्युन्सिपल कारपोरेशन में गया (रोड अहमदाबाद म्युन्सिपल कारपोरेशन का था) तो उन्होंने मना कर दिया। (टोल कलेक्शन के डेटा कोई कंपनी वाला अपने बच्चे तक को नहीं दिखता)। फिर इंटरनेट से DoPT एडवाइजरी को पढ़ा, उसको कोट करते हुए एक आरटीआई बना ली, पर ३० दिन में कोई जवाब नहीं आया (प्राइवेट कंपनी वाले सरकारी बाबू
लोग को डेटा ना देने के लिए पैसे देते है) फिर अपील में गया तब जाकर डेटा मिला। फिर और डेटा के लिए नेशनल हाईवे में आरटीआई फाइल की और और इससे मुझे
पूरे इंडिया के सभी टोल बूथ के टोल कलेक्शन मिल गए, वो भी घर
बैठे-बैठे। अब आप ज़रा सोचिये अगर आरटीआई का क़ानून नहीं होता तो कितने समय और पैसे का व्यय होता ।
यह तो कुछ मुख्य अनुभव ही लिखे हैं, इसके अलावा और भी बहुत कुछ है। जैसे ऑल पार्टी मीटिंग का मुद्दा - एक ही मुद्दे को लेकर ५-६ बार ऑल पार्टी
मीटिंग बुलाई जाती है, लाखों रुपयों की दावत दी जाती है पर जनता से जुड़े मुद्दे आज भी लटकते
रहते है संसद में।
एक और आरटीआई की थी.. मार्शल्स को लेकर (मार्शलस - जो लोकसभा में सिक्योरिटी देते हैं), उन पर सरकार सालाना करीब 10 करोड़ खर्च करती है पर उनका उपयोग नहीं कराती ।
बहरहाल, आप एक लाख रुपये देकर शायद एक बच्चे को ही पढ़ा सकते हैं पर १ लाख
रुपयों का उपयोग कर आरटीआई और पीआईएल के ज़रिये विद्यालयों की शिक्षा का स्तर सुधार सकते हैं। एक बार इसपर
सोचियेगा ज़रूर ।
आज बस इतना ही, बाकी और फिर कभी....
( Edited by : Aanchal )
Comments
Post a Comment